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बात-चीत

अनुयायियों ने गांधी को माना असफल व्यक्ति : गिरिराज किशोर

अमित कुमार विश्वास


जमीन से जुड़ी रचनाओं की प्‍यास जीवन की वास्‍तविक प्‍यास होती है। हिंदी के विशिष्‍ट साहित्‍यशिल्‍पी गिरिराज किशोर की रचनाएँ इसी प्‍यास को जगाती हैं। कानपुर के प्रौद्योगिकी संस्‍थान (आईआईटी) में जीविकोपार्जन करने वाले गिरिराज किशोर की बहुचर्चित-बहुपठित और बहुप्रशंसित औपन्यासिक कृति 'प‍हला गिरमिटिया' लेखक के आठ वर्षों के गंभीर अनुशीलन का परिणाम है। इस उपन्‍यास की रचना के लिए लेखक ने गांधीजी से संबंधित 2200 पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया। 8 जुलाई 1937 में मुजफ्फरनगर, उत्‍तर प्रदेश में जन्‍मे गिरिराज किशोर साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार, उत्‍तर प्रदेश हिंदी संस्‍थान द्वारा साहित्‍य भूषण सम्‍मान, कैब्रिज इंग्लैंड द्वारा इंटरनेशनल आर्डर ऑफ मेरिट गोल्‍ड मेडल सहित कई पुरस्‍कारों से सम्‍मानित हो चुके हैं। करीब तीन दर्जन से अधिक गद्य कृतियाँ रचनेवाले गिरिराज किशोर पिछले दिनों व्‍याख्‍यान देने के लिए महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय विश्‍वविद्यालय, वर्धा में आए तो विश्‍वविद्यालय के मीडिया विभाग के शोधार्थी एवं स्‍वतंत्र पत्रकार अमित कुमार विश्‍वास ने उनसे विभिन्‍न मसलों पर लंबी बातचीत की। पेश है बातचीत के प्रमुख अंश -

प्र. 'पहला गिरमिटिया' और 'हिंद स्‍वराज-गांधी का शब्‍द अवतार' नामक दो पुस्‍तकों के जरिए आपने गांधी के जीवन, कर्म और चिंतन पर आपने महत्‍वपूर्ण कार्य किया है, क्‍या आप गांधी विषयक अनुशीलन को और आगे बढाएँगे

उत्‍तर. देखिए, ऐसा है कि अब ज्‍यादा काम बढ़ाना तो इसलिए संभव नहीं है क्‍योंकि एक तो हमारी आयु बढ़ गई है दूसरा अब हम सेवानिवृत हो गए है। मौलिक कार्य करने में खर्च आता है उसे अब हम बर्दाश्‍त नहीं कर सकते लेकिन मैं जानता हूँ कि गांधी भी एक ऐसे चरित्र हैं जिनके बारे में आनेवाले लोग सोचेंगे और मेरे ख्‍याल से जो मैंने काम किया है उससे अधिक महत्‍वपूर्ण काम करेंगे ऐसा मैं समझता हूँ और आपके जीवन में शायद उनके उपर उनके भारतीय गांधी के बारे में बहुत अच्‍छी रचनाएँ आ सकेंगी।

प्र. आपने कहा कि नई पीढियों से उत्‍कृष्‍ठ रचनाएँ आ सकती हैं, क्‍या आप नई पीढ़ी से आशांवित हैं

उत्‍तर. पूरी नई पीढ़ी के बारे में नहीं कह र‍हा हूँ लेकिन कोई न कोई आदमी संवेदनशील होगा जो इस पृष्‍ठभूमि में भारतीय पृष्‍ठभूमि में गांधी को देखने की कोशिश करेगा और सबके सामने लाने की कोशिश करेगा कि भारत के नेताओं ने उन्‍हें किस तरह से धोखा दिया और जो कुछ वे कर सकते थे, करने नहीं दिया।

प्र. ऐसा आप क्‍यों कहते हैं कि गांधी असफल व्‍यक्ति थे

उत्‍तर. गांधी विदेशों के लिए तो सफल व्‍यक्ति हैं लेकिन हमारे देश में गांधी को उनके ही अनुयायियों ने असफल बना दिया और उन्‍होंने ही नहीं बल्कि राजनीतिक पार्टियाँ हैं, वे सब भी गांधी को समझ नहीं पाईं, ज्‍यादातर लोग गांधी का विरोध करके, बुराई करके आगे बढे हैं, ये उनके लिए सुगम रास्‍ता बना।

प्र. कहीं ऐसा तो नहीं है कि आप गांधी पर ही ठहर गए हैं, गांधी ने अपने चिंतन और कर्म का सूत्र भारतीय संदर्भ में जिनसे लिया था, क्‍या उस स्‍त्रोत की ओर भी आप बढेंगे

उत्‍तर. देखिए गांधी के विचार पर मैं लगातार काम करता रहा था लेकिन भारतीय गांधी के उपर जो काम है, उसमें यात्राएँ हैं लोगों से मिलना और चीज़ों को खोजकर निकालना, ये थोड़ा कठिन हो गया है, यही अब मेरे सामने बहुत बड़ी कठिनाई है और मैं ये समझता हूँ कि और भी लोग ये काम करेंगे। ऐसा है कि 'पहला गिरमिटिया' के लिए काम किया, उसी सिलसिले में मैं दक्षिण अफ्रीका गया, उसके लिए लंदन गया और भी कई स्‍थानों पर जाना पड़ा, सैकड़ों, हजारों लोगों से मिला, गांधी से संबंधित करीब 2200 पुस्‍तकों का अध्‍ययन किया, लेकिन अब मेरे लिए ये संभव नहीं है कि मैं इतनी भागदौड़ कर सकूँ। तब तो मेरी तनख्‍़वाह थी, चिंता कम थी, ये सफलता मिली जो आपके सामने है लेकिन अब मैं करूँगा तो शायद उस मनोयोग से नहीं कर पाऊँगा और दूसरा पाठक वर्ग भी ये सोचेगा कि जितने मनोयोग से पहला काम हुआ, शायद उतने मनोयोग से ये नहीं कर पाए हैं। मैं जो काम कर चुका हूँ उसका भी महत्‍व कम हो जाएगा।

प्र. हिंदी साहित्‍य पर पश्चिमी साहित्‍य सिद्धांत, शिल्‍प, शैली और कहन का अत्‍यधिक प्रभाव पड़ा है, क्‍या इसके कारण हिंदी साहित्‍य और भारतीय ज्ञान-विचार परंपरा में अलगाव नहीं पैदा हुआ है

उत्‍तर. देखिए विचार ऐसी चीज है कि जिस पर वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है, बदलते हुए समय का भी, और जो चिंतन की धारा विश्‍व में बहती रहती है, बदलती रहती है वो सब लेकिन अगर हम उन प्रभावों को अपने जीवन के उपर ले लें, जीवन की वास्‍तविकताओं को भूल जाएँ और कृत्रिम वास्‍तविकता जो दूसरे विचारों व जीवन से ले रहे हैं उनके प्रभाव में आ जाएँ तो हमारा विचार, चिंतन, रचनात्‍मकता, संवेदना प्रदूषित होने लगती है और जहाँ तक हमारे साहित्‍य के उपर दबाव पड़ने का सवाल है शुरू में जब कथा साहित्‍य और काव्‍य हिंदी भाषा में आया तो अनेक विदेशी प्रभाव उस पर काम कर रहे थे लेकिन अब जीवन प्रमुख होता जा रहा है, इसके बावजूद बाजार में बिकने के लिए हम बहुत सी ऐसी बातों को दे देते हैं जो हमारी रचनात्‍मकता को कहीं न कहीं नकारात्‍मक प्रभाव डालती है। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में जब हम सोचने लगे कि हम बदल रहे हैं तो निश्चित रूप से सत्‍य को और सही चीजों को सामने लाया जा स‍कता है।

प्र. क्‍या आपको लगता है कि गांधी के समक्ष जो समस्‍याएँ थी, उनके बरक्‍श आज की समस्‍याएँ भिन्‍न है

उत्‍तर. ये सही है कि देश-काल के अनुसार समस्‍याओं में परिवर्तन होता रहता है, गांधी के समक्ष जो समस्‍याएँ थी, आज यह उससे भिन्‍न है। हमें समस्‍याओं के हल ढूँढने होंगे। गांधी ने समस्‍या को हल करने के लिए नया मार्ग अपनाया-सत्‍य और अहिंसा और सत्‍याग्रह का। मैं ये मानता हूँ कि अगर आपमें शांति और सहनशीलता है तो बडे़ से बडे़ दुश्‍मन भी परास्‍त हो जाएँगे और अगर आप बंदूक से बात करेंगे तो वे भी आपसे बंदूक उठाकर बातें करेंगे या फिर आपके किसी बात का समाधान न करके आपके रास्‍ते से अलग हो जाएँगें तो आज समाज को सत्‍य की आवश्‍यकता है चाहे वह आर्थिक दृष्टि से आए, सामाजिक दृष्टि से आए या किसी भी दृष्टि से आए। आप देखिए माफिया जिसको आप कहते हैं उनके सामने एक गरीब आदमी भी अपनी गरीबी की बात नहीं कहेगा और अमीर आदमी भी माफिया से डरता है तो ये जो बातें हैं, ये शक्ति के शोषण के अंतर्गत आता है। जिसके पास शक्ति है वो निश्चित रूप से शोषण करेगा और जो दूसरे के दर्द को समझता है, तो वह सत्‍य को अपने जीवन में उतार सकता है।

प्र. भारतीय विचार प्रक्रिया पर ब्राह्मण और वैदिक परंपरा का वर्चस्‍व ज्‍यादा है श्रमण और अवैदिक परंपरा क्‍यों नहीं

उत्‍तर. आप ठीक कह र‍हे हैं, देखिए ब्राह्मण वर्ग बौद्धिक सत्‍ता का स्‍वामी रहा है और वो नियामक भी रहा है तो उसका प्रभाव शताब्दियों से लगातार पड़ता रहा है उस‍का नतीजा ये हुआ कि ईश्‍वर ने जो सृष्टि को बनाया था बल्कि एक समता की दृष्टि से, लेकिन मनुष्‍य अपनी क्षुद्रता, स्‍वार्थ, लिप्‍सा के कारण गैर-समानता को जन्‍म दिया, वह चाहे वह सत्‍ता के माध्‍यम से, चाहे वह विचार हो, उनको अपने परिवार, जाति के हित में लेकर किया, जिसके कारण एक बहुत बड़ा वर्ग बहिष्‍कृत रहा है और उसका नतीजा ये हुआ कि वो एक सामान्‍य जीवन नहीं जी सका और ये बात गांधी और अंबेडकर ने बहुत गहराई से समझा। अंबेडकर ने अपने तरीके से प्रयत्‍न किया और गांधी ने अपने तरीके से, लेकिन अंबेडकर जो करना चाहते थे वो नहीं कर पाए। गांधी जहाँ तक चाहते थे वे भी वहाँ तक नहीं कर पाए, वो एक ऐसा समाज बनाना चाहते थे जहाँ छूआछूत न हो, समता पर आ‍धारित हो।

प्र. क्‍या आप मानते हैं कि अंबेडकर को छूआछूत, जातिप्रथा विरासत में मिली थी और जबकि गांधी को नहीं

उत्‍तर. अगर अंबेडकर दलित वर्ग में भी जाति वर्ग को किसी तरह से खत्‍म कर पाते तो आज हमारी सामाजिक स्थिति कुछ और होती। समता आधारित समाज के लिए उन्‍होंने जो कुछ किया आने वाली पीढ़ियाँ याद करेंगी हालाँकि दलितोद्धार के लिए किए गए प्रयास में एक वर्ग तो पनपा लेकिन दूसरा उपेक्षित रह गया। अंबेडकर के पास समय नहीं था और वे बाद के दिनों में इस बात को लेकर रो पडे़ थे। धर्म की बात करें तो अंबेडकर भी धर्म से उपर नहीं उठ पाए चाहे वह बौद्धधर्म में चले जाएँ लेकिन धर्म से उपर क्‍यों नहीं उठ पाए जैसे गांधी नहीं उठ पाए। ये भी सही है कि दोनों की परिस्थितियाँ अलग है। दोनों अपने तरीके से परिस्थितियों से उबर रहे थे।

प्र. ऐसा कहा जाता है कि गांधीजी लाख छूआछूत निर्मूलन की बात करें पर उन्‍होंने जातिप्रथा को समाप्‍त करने के लिए अपने पुत्र-पुत्रियों का वैवाहिक संबंध निम्‍न जाति से नहीं किया, क्‍या आप मानते हैं कि इस सन्‍दर्भ में गांधी अव्‍यावहारिक थे

उत्‍तर. मैंने अपनी बेटी की शादी निम्‍न वर्ग से किया तो इसका मतलब ये तो नहीं कि हम गांधी से ऊपर हो गए। गांधीजी ने दहेज प्रथा को बढने नहीं दिया, देखिए कि देवदास गांधी ने भी अपनी जाति में शादी नहीं की, इसका मतलब यह नहीं है। उस समय की क्‍या परिस्थितियाँ थी लेकिन उन्‍होंने ये निश्चित कर लिया था कि जहाँ पर एक दलित और सवर्ण की शादी नहीं होगी उस विवाह में शामिल नहीं होंगे और मैं ये समझता हूँ कि ये प्रभाव उनपर अंबेडकर का पड़ा। पहले तो वे जातिवाद को मानते थे फिर उन्‍होंने जातिवाद को मानना बंद कर दिया तो ये प्रभाव मैं समझता हूँ कि अंबेडकर का ही उनपर पड़ा क्‍योंकि वे परिवर्तनशील थे। चीजों को देखकर अपने को परिवर्तित कर लेते थे तो अंबेडकर ने भी गांधी को परिवर्तित किया था।

प्र. समाज में परिवर्तन लाने के लिए क्‍या किया जाना चाहिए

उत्‍तर . समाज में परिर्वन लाने के लिए नई पीढ़ी को आगे आने की जरूरत है। नई पीढ़ी में वो ताकत है जो कि परिवर्तन ला सकते हैं लेकिन हमारे माता-पिता प्रशिक्षण ही नहीं देते ताकि वो वस्‍तुनिष्‍ठ व तटस्‍थ होकर कुछ कार्य कर सकें। हम चाहते हैं कि जो हम कह रहे हैं उसे वह मान लें और उसका नतीजा यह होता है कि कई बार वे दिग्‍भ्रमित होते हैं।

प्र. क्‍या आप मानते हैं कि भूमंडलीकरण के बाजारवादी प्रक्रिया में हम उसके पीछे हो चले हैं

उत्‍तर. आज भूमंडलीकरण में सबकुछ परिवर्तित करने की ताकत है, हम उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के पीछे हो चले हैं। सबकुछ स्‍वार्थ पूर्ति पर ही अवलंबित हो गया है। मैंनेजमेंट वालों को कहा जाता है कि तुम अपनी लाभ के लिए दूसरों की कुछ ज्‍यादती भी करते हो तो कोई बात नहीं लेकिन धन कमाओ तो ऐसी स्थिति में हमलोग लिप्‍सा की ओर बढ़ रहे हैं कि कैसे पैकेट में लाखों रूपये मिलते रहे, चाहे हमें कुछ भी करना पड़े, ये जो आज की स्थिति है उसके लिए माता-पिता ज्‍यादा जिम्‍मेदार हैं, वे उनके दिमाग में भर देते हैं कि तुमको इंजीनियर बनना है, डॉक्‍टर बनना है, उनको हमने मानवीय संवेदनशील व्‍यक्ति बनाने के लिए कोशिश ही नहीं करते। चाहे उनकी रूचि व चाहत न हों फिर भी बच्‍चे ये सोचते हुए कि माता-पिता को बहुत तकलीफ पहुँचेगी यही कारण है कि वह रूढिवादी व परंपरागत समाज का वाहक बन गया है उनमें से बहुत कम लोग निकल कर आ पाए जो उसका विरोध कर सके।

प्र. आज के तमाम विमर्शों में स्‍त्री विमर्श और दलित विमर्श कहाँ खड़े हैं

उत्‍तर. देखिए आज हमारे उपर बहुत सी सभ्‍यताओं के दबाव आए हैं उन दबाव के कारण ये विमर्श पैदा हुए हैं और सभी वर्गों में एक-दूसरे से चिंतन बढता चला जा रहा है और स्‍त्री-विमर्श में आप देख लीजिए स्त्रियाँ अपने घर में उन सब बंधनों को मानती हैं और वो दूसरे को कहती हैं तुम्‍हें ये नहीं मानना चाहिए, जो वो दूसरों को कहती हैं तुम्‍हें ये नहीं मानना चाहिए। ऐसे ही दलित विमर्श में भी हैं।

प्र. हिंदी में प्रचुर साहित्यिक लेखन होता है वैचारिक, मानवशास्‍त्रीय या समाजशास्‍त्री लेखन उस अनुपात में कम क्‍यों हो रहा है

उत्‍तर. मेरे देखते-देखते 15 साल से, हिंदी का साहित्‍यकार और हिंदी साहित्‍य हाशिए पर चला गया है पहले बैठते थे, किसी मुद्दे पर बात करते थे, विचार करते थे, असहमति पर विरोध भी जताते थे पर अब सामाजिकता कहाँ बची है। हम अपनी बात को दूसरे से नहीं कहना चाहते हैं लेकिन वो ये नहीं चाहते कि उनके साहित्‍य, लेखन में कोई हस्‍तक्षेप हो और ये हस्‍तक्षेप न करना कहीं न कहीं समाज से उसे विलगाता है, इसलिए समाज के साथ अधिक हस्‍तक्षेप होगा तो वह जीवन से जुड़ेगा। जहाँ तक रही मानवशास्‍त्रीय व समाजशास्त्री में सहित्‍य सृजन की तो ये विषय हमारे यहाँ बाहर से आया है और जो हम मानवाधिकार की बात करते हैं, शोध करा देते हैं ये सैद्धांतिक बातों से समाज पर क्‍या असर पड़ेगा जबतक कि हम व्‍यवहार में हम प्रयोग नहीं करेंगे। कानपूर में बलात्‍कार हुआ, कोई मानवाधिकार कार्यकर्ता नहीं आया जनता को सड़क पर उतरना पडा। आज जो भी समाजशास्‍त्री सिद्धांत की बात करता है, मानवाधिकार व समाज कल्‍याण की योजना बनाते हैं उनकी मान्‍यताओं में उसके प्रति कितना विश्‍वास आम जनों के बीच बना पाता है।

प्र. मठाधीश लोग सारे संस्‍थानों में काबिज हैं वे पद पर नई पीढ़ी को आने ही नहीं देते, इस संदर्भ में आपकी टिप्‍पणी

उत्‍तर. संघर्ष करने से बचेंगे तो जो बैठे हैं उनको नहीं निकाल पाएँगें वे तो और भी मजबूती से बैठे रहेंगे। नई पीढ़ी को जागरूक होना पड़ेगा, आप चुप रहेंगे तो ये सब ऐसे ही होता रहेगा। जबतक आपने शोषण व अन्‍याय के खिलाफ क्रांति नहीं करेंगे कुछ होने वाला नहीं है न वो आगे बढ पाएँगें और न ही कोई रास्‍ता निकल सकेगा।

प्र. जेपी ने तो जनांदोलन के द्वारा सत्‍ता पलट दी पर क्‍या अब आपको लगता है कि अब ऐसा कुछ हो सकता है

उत्‍तर. मुझे लगता है कि जहाँ भी जनता जागरूक हुई है, सत्‍ता को पलट दिया है। ताजा उदाहरण देख लीजिए इजिप्‍ट की। रोम में न फौज जनता के खिलाफ हथियार उठा रही है और न ही जनता फौज के खिलाफ, ये अजब फिनोमिना है। ये फिनोमिना आने वाले समाज को संदेश देगी कि इस तरह से भी क्रांति हो सकती है। फौज तो गोली चला सकता है लेकिन वह शक्ति का उपयोग नहीं कर र‍हा है।

मणिपुर में फौजी ताकतों द्वारा आम जनता को तबाह किए जाने, सशस्‍त्र सुरक्षा बल कानून को समाप्‍त किए जाने की माँग को लेकर इरोम शर्मिला 11 वर्षों से सत्‍याग्रह कर रही हैं। उनका त्‍याग कभी भी व्‍यर्थ नहीं जाएगा। आज तो जनांदोलन खत्‍म हो गया है न तो विद्यार्थी आंदोलन करता है और न ही मजदूर या व्‍यवसायी, सब समझौतावादी होते चले गए। अरे पहले तो शोषण व अन्‍याय के खिलाफ जनांदोलन से ही लड़ाई जीती जाती थी। आंदोलन को कोई नहीं रोक सकता, जिस रोज 10 लोग खड़े हो जाएँ हवा निकल जाएगी गलत काम करने वालों की। हम एकांगीपन में ही जीने को आदी होते जा रहे हैं, हमारे बीच न तो दूसरे के दुख दर्द को जानने की समय बची और न ही मानव मूल्‍यों को समझने की। हम तो सुविधा परस्‍ती होना चाहते हैं, देखिए लोअर क्‍लास मिडिल क्‍लास होना चाहता है। मिडिल क्‍लास अपर क्‍लास होना चाहता है और अपर क्‍लास और भी अपर क्‍लास होना चाहता है, ये जो आकांक्षाएँ हैं आदमी को परेशान कर रही हैं।

प्र. नई पीढ़ी की रचनाएँ किस दिशा में जा रही हैं

उत्‍तर. चीजों को गहराई से समझें उपरी तौर पर नहीं। उपरी तौर पर समझेंगे तो जिंदगी में हार मिलेगी न कि जीत। आप देखिए नई पीढ़ी के जो उपन्‍यास आ रहे हैं क्‍या है उसमें सेक्‍स, भोंडापन। बहुत कम लोग समाज की समस्‍याओं पर लिख रहे हैं, मैंने मनुष्‍य की तकलीफ पर उपन्‍यास लिखे हैं। राजेंद्र यादव जैसे कई हैं, कमलेश्‍वर ने भी लिखा है बिल्‍कुल यूटोपिया की तरह - कितने पाकिस्‍तान। मैं ये कह रहा हूँ कि यथास्थितिवाद बनाए रखना और उसके विरोध में खड़ा होना दोनों दो चीज़ें हैं।

प्र. नई पीढ़ी को आप क्‍या संदेश देना चाहेंगे

उत्‍तर. सत्‍य को लाने के लिए गवेषणा करनी पड़ती है और आदमी जितनी गहराई में उतर सकता है, उन अज्ञात चीजों के बारे में भी जिन्‍हें वह नहीं जानता है, उसे अपनी तर्क और बुद्धि से समझें तो व्‍यक्ति समाज के लिए कुछ कर पाएगा।

प्र. आजकल आप क्‍या लिख रहे हैं

उत्‍तर. मैं ग्‍लोबलाईजेशन पर लिखने की तैयारी कर रहा हूँ। मुझे लगता है कि ग्‍लोबलाईजेशन के बाद से मानवीय मूल्‍य पर जो संकट आया है उससे कैसे बचा जा सक‍ता है शायद इसकी अभिव्‍यक्ति को साहित्‍य में दे पाएँ।


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हिंदी समय में अमित कुमार विश्वास की रचनाएँ